• गुरुवार, 21 नवंबर, 2024

देश कैसे बनते हø समृद्ध?

कई देश धनवान होते हø, कई गरीब होते हø ऐसा क्यों? दुनिया के सबसे धनिक 20 प्र.श. देश सबसे गरीब 20 प्र.श. देशों की तुलना में 30 प्र.श. समृद्ध हø। आज जो देश गरीब हø वे कायम गरीब नहीं थे, कई तो समृद्ध थे। किस लिए कई देश समृद्ध बन सकते हø और दूसरे नहीं बन सकते? इसके जवाब में जीवशात्र, भूगोल, मानसून और उत्क्रांति सहित कारण दिए गए हø। इस वर्ष के अर्थशात्र के नोबेल पारितोषिक विजेता दारोन एसेमोग्लु, सायमन ज्होनसन और जेम्स रोबिंस के अनुसार देश को समृद्ध बनाने में संस्थाएं महत्वपृर्ण भूमिका निभाती हø। संस्थाएं सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक अनेक प्रकार की हो सकती हø। नोबल विजेता जिसकी बात करते हैन वह संस्थाएं यानी की सत्ता के उपयोग पर प्रत्यक्ष असरकारक नियंत्रण लगाती संस्थाएं, प्रथाएं, व्यवस्थाएं। इन विभिन्न समूह के बीच संतुलन बरकरार रहता हø, मजबूत पहुंच वाले वर्ग का आप खुद मनमानी करने से रोकने हø और समय के साथ समाज में कानून और व्यवस्था, कांट्रेक्ट का अनुपालन। निजी मिल्कियत की प्रवृत्तता, स्वच्छ प्रशासनिक तंत्र, न्याय और समानता आदि खासियत विकसित करते हø, जो निवेश उद्ययमिता और विकास का पोशक है। संक्षिप्त में मुक्त, उदार, समावेशक, लोकतांत्रिक संस्थाएं समाज को समृद्ध बनाने में कारण रूप हø उनका अभाव समृद्ध बनाने में अवरोधरूप है।

इसके प्रमाण के रूप में उन्होंने यूरोपियन संस्थानवाद की विभिन्न देशों पर हुए असर का अध्ययन किया। जिन देशों में यूरोपियन की मृत्यु दर कम थी, जहां वे बड़ी संस्था में बस सकें वहां उन्होंने अपने लाभ के लिए समावेशक, खुली लोकतांत्रिक संस्थाएं स्थापित की जो उनकी विदाई के बाद भी वे देश उपकारक बनी। जहां वे बड़ी संस्था में बस नहीं सकें वहां उनका उद्देश्य उस देश से संपत्ति लेकर अपने घर में लाना था। उनका शासन भी सोशणकारी और गैर लोकतांत्रिक रहा और ये देश आजाद होने के बाद भी प्रगति नहीं कर सकें।

यह विश्लेषण इतिहास की कसौटी से बाहर निकल सके ऐसा नहीं है। ब्रिटेन की समृद्धि में उनके संस्थानवाद को (अन्य देशों में चलाई गयी व्यवस्थित लूट का) और अमेरिका की समृद्धि में गुलामी प्रथा का बहुत बड़ा योगदान रहा इसे किस तरह भूला जा सकता है? भारत आजादी के बाद लोकतांत्रिक देश बना, लेकिन पूंजी के अभाव में समृद्ध नहीं बन सका, चीन  लोकतांत्रिक देश नहीं, लेकिन भारत की तुलना में कई गुना समृद्ध बन सका है। पूर्व एशिया के व्याघ्र के रूप में पहचाने जाते देशों पर यूरोप के विभिन्न देशों ने राज्य किया, लेकिन पश्चिमी तरीके से लोकतांत्रिक मदद बगैर उन देशों ने नेत्र दीपक प्रगति की है। इसके बावजूद अर्थशात्रियों का मुद्दा बिल्कुल निकाल देने जैसा नहीं है। नोबल विजेताओं का मूल अध्ययन लेख 2001 में प्रकाशित हुआ था। इसके बाद उन्होंने अपने सिद्धांत को अधिक विकसित बनाया है और खेती की जमीन प्राप्त करने का अधिकार, मताधिकार, पीढ़ी-दर पीढ़ी नीचे आ रही सत्ता आदि को भी उसमें जोड़ लिया है, लेकिन उनका मूल प्रतिवादन- देश की समृद्धि नसीब या जनता पर नहीं बल्कि संस्थाओं की पसंदगी के आधार पर रखता है- यथावत् रहा है। कुल मिलाकर उनका दृष्टिकोण आशावादी है। भारत में अब उदार लोकतांत्रिक पर आधारित मुक्त आर्थिक नीतियों के बारे में सर्व सम्मति विद्यमान हø। जो देश में सरकार व्यापार-धंधा-उद्योग शुरू करना और चलाने का जोखिम घटाने में मानती है, संपत्ति हक की सुरक्षा होती है, तेजी और सस्ती हो और लोगों की बचत सरकार द्वारा लेनी है तो देश दीर्घावधि में समृद्ध करेगा ऐसा मानने में कोई हरकत नहीं।