राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा लगाए गए आयात शुल्क के असर को लेकर की गई अशुभ भविष्यवाणियां सच होती नज़र आ रही हैं। चीन ने अमेरिका पर 34% जवाबी शुल्क लगा दिया है। यूरोपीय संघ भी पलटवार करने की तैयारी में है। यदि यूरोप अमेरिकी सेवाओं के आयात पर शुल्क लगाएगा (जिसमें अमेरिका को करीब 100 अरब डॉलर का घाटा है), तो एक नया मोर्चा खुल जाएगा। व्यापार युद्ध के चलते अंतरराष्ट्रीय व्यापार सिकुड़ सकता है, सभी देशों में विकास की रफ्तार धीमी हो सकती है और महंगाई बढ़ सकती है। केवल अमेरिका ही नहीं, बल्कि पूरा विश्व आर्थिक मंदी की खाई में धकेला जा सकता है, ऐसी संभावना दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। शेयर बाज़ारों में भूकंप जैसा माहौल हो गया है – सूचकांक धराशायी हो गए हैं। सोमवार को सेंसेक्स और निफ्टी पांच प्रतिशत गिर गए और निवेशकों के लगभग ƒ19.4 लाख करोड़ स्वाहा हो गए। टैरिफ हमलों के प्रति विभिन्न देशों की प्रतिक्रिया अलग-अलग रही है। कंबोडिया और वियतनाम सहित कई छोटे देशों ने समर्पण कर दिया है। भारत सहित लगभग पचास देशों ने अमेरिका के साथ बातचीत के लिए तैयारी दिखाई हैं। भारत पर लगाया गया शुल्क कुछ प्रतिस्पर्धी देशों की तुलना में कम है, लेकिन यह खुशी ज्यादा देर तक नहीं टिकेगी। ट्रंप ने भारतीय दवाओं पर अब तक का सबसे ऊंचा शुल्क लगाने का संकेत दिया है। अमेरिकी ग्राहक अब भारतीय निर्यातकों से फिर से मोलभाव कर 15-20% की छूट मांग रहे हैं। शुल्कों के कारण उनकी बकाया राशि (उधारी/भुगतान) अचानक बढ़ जाने से भुगतान में देरी होगी और इससे भारतीय निर्यातकों की कार्यशील पूंजी का चक्र भी प्रभावित होगा। डॉलर के मुकाबले रुपया लगातार मजबूत हो रहा है। महंगा रुपया और ऊंचे शुल्कों की वजह से मांग पर चोट पहुंचने की आशंका है। शुल्क का बोझ अमेरिकी ग्राहक, अमेरिकी आयातक और भारतीय निर्यातक के बीच कैसे बंटेगा, यह बातचीत और सौदेबाज़ी पर निर्भर करेगा।
भारतीय उद्योग जगत अमेरिका के साथ शीघ्र
द्विपक्षीय व्यापार समझौता करने पर ज़ोर दे रहा है ताकि शुल्क का बोझ कम किया जा सके।
उनकी जल्दबाजी को समझा जा सकता है। अमेरिका भी अपनी शर्त़ों पर तुरंत समझौता करने को
तैयार है। लेकिन भारत सरकार को इस मामले में जल्दबाज़ी करने या दबाव में आने से बचना
चाहिए। अमेरिका द्वारा प्रस्तुत आंकड़े भारत की औसत शुल्क दर और व्यापार घाटे के बारे
में सच्चाई से भिन्न हैं। ङगक्त के अनुसार,
भारत की औसत शुल्क दर 12% है, जबकि अमेरिका इसे 17% बताता है। अमेरिका की कुछ
मांगें ऐसी हैं, जिन्हें भारत किसी भी हालत में स्वीकार नहीं कर सकता। अमेरिका विश्व
में कृषि उत्पादों का दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक है। वह भारत को गेहूं, मक्का, दलहन,
सोयाबीन, डेयरी उत्पाद और मांस बेचना चाहता है। अमेरिका अपने किसानों को डब्ल्यूटीओ
के नियमों से बचने के लिए भारी सब्सिडी देता है, लेकिन भारत की न्यूनतम समर्थन मूल्य
नीति पर आपत्ति जताता है। अमेरिका चाहता है कि भारत जीएम (जेनेटिकली मॉडिफाइड) अनाज
और सब्ज़ियों के आयात पर लगे प्रतिबंधों में ढील दे। उसकी तीसरी मांग है कि पेटेंट
क़ानूनों में बदलाव कर दवाओं के पेटेंट के `एवरग्रीनिंग' की अनुमति दी जाए, जिससे जिन
दवाओं की पेटेंट की अवधि समाप्त हो गई हो, उन्हें मामूली बदलाव के साथ फिर से पेटेंट
कराया जा सके। यदि ऐसा हुआ, तो जीवन आवश्यक दवाएं कभी सस्ती नहीं हो सकेंगी। इन सभी
मांगों को मान लिया गया, तो हमारे किसान, पशुपालक और मछुआरे तबाह हो जाएंगे, खाद्य
सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी, जीएम खाद्य उत्पादों का ज़हर देशवासियों के शरीर में फैलेगा
और मरीज़ों को लूटा जाएगा। इन गहरे मतभेदों के कारण अमेरिका के साथ व्यापारिक समझौता
करना आसान नहीं होगा। हां, भारत अमेरिका से अधिक हथियार, तेल और गैस खरीद सकता है और
शराब तथा कुछ विशेष फलों पर शुल्क घटा सकता है। लेकिन जल्दबाज़ी करते हुए झुक जाने
की संभावना भी बढ़ जाती है। तीसरी बात यह है कि ट्रंप की नीतियों के खिलाफ अमेरिका
में ही नहीं बल्कि दुनिया के कई देशों में जबरदस्त विरोध उठ खड़ा हुआ है। उसका कोई
असर होता है या नहीं, और यदि नहीं होता तो हालात किस दिशा में बढ़ते हैं — यह देखने
के लिए ठहरना आवश्यक है। जल्दबाजी में किए गए काम अक्सर गलत साबित होते हैं, जबकि धैर्यपूर्वक
किए गए काम गंभीर और स्थायी परिणाम देते हैं।